प्राचीन नदियों का जीर्णोद्धार करने के उद्देश्य से केन्द्रीय सरकार द्वारा गंगा यात्रा का आयोजन किया जा रहा है, जिसमें सभी प्रमुख नदियों को प्रदूषण से मूत कराने और उनके प्रवाह को सुनिश्चित किये जाने की तैयारी चल रही है. उत्तर प्रदेश में गंगा की प्रमुख सहायक गोमती के संरक्षण को लेकर भी अब प्रशासन में हलचल देखी जा रही है. हाल ही में राजस्व विभाग की ओर से गोमती नदी के सीमांकन का कार्य शुरू हो गया, जिसके बाद से उम्मीद जताई जा रही है कि जल्द ही गोमती की जमीन को अतिक्रमण से मुक्ति दिलाई जाएगी.
बता दें विगत कईं दशकों से देश की तमाम छोटी-बड़ी नदियों की तरह ही उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले स्थित फुलहर झील से उद्गमित होने वाली गोमती भी उपेक्षा का शिकार बनी हुयी है. अपने उद्गम स्थल के बाद से ही गोमती की जमीन पर अतिक्रमण कर लिया गया है, जिससे नदी कई स्थानों पर तो पूरी तरह सूख चुकी है और जहां बची है, वहां भी शासन-प्रशासन की उपेक्षा और स्थानीय लोगों की लापरवाही के चलते अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है. लखनऊ के बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय में पर्यावरण विज्ञान विद्यापीठ के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ वेंकटेश दत्तने भी जस्टिस आदर्श कुमार गोयल को पत्र लिखकर गोमती की वर्तमान अवस्था और समस्याओं से अवगत कराया और बताया कि किस तरह गोमती की भूमि पर अतिक्रमण और साठा धान की खेती के चलते वर्ष 1978 से 2016 के मध्य इसके प्रवाह में 52 प्रतिशत गिरावट आई है और नदी 95 किमी तक सूख चुकी है, जो चिंतनीय है. यदि गोमती के फ्लड प्लेन्स व रिवर कॉरिडोर्स को अतिक्रमण से मुक्त नहीं कराया गया तो भविष्य में नदी के जीवन पर भारी संकट आ जायेगा, जिसका प्रभाव न केवल नदी अपितु इस पर निर्भर जल जीवन और लाखों लोगों पर भी होगा, साथ ही गंगा नदी पर भी इसका दुष्प्रभाव होगा.
हाल ही में गंगा संरक्षण के अंतर्गत सभी सहायक नदियों के संरक्षण पर भी चर्चा उठनी शुरू हो गयी और देश के नदी विशेषज्ञों सहित बहुत से पर्यावरण प्रेमी भी गंगा की सहायक नदियों को बचाने की मांग कर रहे हैं. जिसके बाद से आवश्यक कदम उठाते हुए सरकार ने आदेश जारी किया कि पौराणिक नदियों की जमीन पर अतिक्रमण कतई बर्दाशत नहीं किया जायेगा और यदि इस आदेश की अवहेलना की गयी तो कड़ी कार्यवाही के आदेश भी जारी किये गए.
गोमती की भूमि को उचित प्रकार से चिन्हित करने के लिए उपभूमि व्यवस्थापक आयुक्त भीष्म लाल वर्मा ने जनपद के डीएम को पत्र लिखकर अवगत कराया गया. इसके साथ साथ राजस्व विभाग भी गोमती क्षेत्र में सर्वे करा रहा है, जिसके अंतर्गत विभिन्न ग्रामों में किसानों को बताया जा रहा है कि जिन लोगों ने गोमती की जमीन पर कब्ज़ा किया हुआ है उन्हें बेदखल किया जायेगा और जिनकी कृषि भूमि नदी के बहाव क्षेत्र में आती है, उन्हें मुआवजा दिया जाएगा. हालांकि यह सूचना किसानों के मध्य जाने से वह काफी परेशान दिखाई दिए किन्तु प्रशासन ने उन्हें दिलासा दिया है कि सभी को बढ़े दामों के अनुसार ही मुआवजा मुहैया कराया जाएगा.
गोमती को बचाने की दिशा में एक सार्थक पहल करते हुए लखीमपुर खीरी में जिलाधिकारी शैलेंद्र कुमार सिंह ने उच्चतम न्यायालय और एनजीटी के निर्देशों का अनुपालन करते हुए जिले में साठा धान की खेती पर प्रतिबंध लगा दिया था. जिसमें उन्होंने स्पष्ट किया था कि साठा धान से भूगर्भीय जल का आवश्यकता से अधिक दोहन हो ही रहा है, साथ ही इसके कारण पराली जलाने की घटनाओं में भी तेजी आती है. इसके अतिरिक्त मौसम वैज्ञानिकों के अनुमान के अनुसार इस बार बारिश कम होने के आसार है, जिसके चलते डीजल चलित पंपों के द्वारा सिंचाई की जाएगी और साठा धान की खेती में पानी का उपयोग अत्याधिक होता है. यानि भविष्य में पेयजल के संकट से भी जिलावासियों को जूझना पड़ सकता है और डीजल पंपों के कारण वायु प्रदूषण भी बढ़ता है.
वहीं लखनऊ के इंदिरानगर में यूपी कोऑपरेटिव लिमिटेड एग्रीकल्चर ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट में आयोजित हुए ऊपरी गंगा बेसिन संगठन, बाढ़, बाढ़ क्षेत्र और उसके वर्गीकरण को लेकर हुयी कार्यशाला में भी उत्तर प्रदेश सरकार से मांग की गयी कि प्रदेश में "बाढ़ मैदान परिक्षेत्रण अधिनियम" लागू किया जाए, जिससे प्रदेश की विभिन्न नदियों गंगा, यमुना, गोमती, घाघरा, सरयू, काली सहित अन्य नदियों को समय रहते संरक्षित किया जा सके. इस अधिनियम के बन जाने के बाद कोई भी नदी के बाढ़ क्षेत्र में अतिक्रमण कर मकान, व्यवसाय अथवा कृषि इत्यादि कार्य नहीं कर पायेगा, इससे नदी का प्राकृतिक बहाव बना रहेगा और बाढ़ आदि प्राकृतिक आपदा आने पर जानमाल की हानि भी नहीं होगी.
प्रकृति के प्रति स्वार्थी होने की मानवीय प्रवृति सदा से ही देखने को मिलती रही है, विशेष तौर पर नदियों, सागरों और पर्वतों से उन्हीं की संपदा को छीन लेने की लालच ने आज हमें जल और जंगल से विहीन बनाने और मानवीय सभ्यता के विनाश की एक नयी कहानी लिख डाली है.
नदियों और पर्वतों से उनका घर-आंगन छीन लेने से उत्तराखंड में आई तबाही तो मात्र एक उदाहरण भर थी, कौन जानें कि भविष्य के गर्त में इससे भी कुछ अधिक छिपा हुआ हो. उत्तर प्रदेश हो या बिहार, दिल्ली हो या वाराणसी, तिरुवनंतपुरम हो या कन्याकुमारी...बस जगह बदली हैं स्थिति एक ही है. बिना किसी रोकटोक, धड़ल्ले से नदियों की जमीन का अधिग्रहण जारी है. बिना लैंड बियरिंग कैपेसिटी का अध्ययन किये बिना नदी की जमीन को छीन लेना कहीं से भी उचित नहीं है. नदियों का अपना एक प्राकृतिक तंत्र है, जिसके साथ खिलवाड़ नहीं किया जाना चाहिए, इस दिशा में वाकई सरकार को ठोस कदम उठाने, कड़े कानून बनाने की दिशा में काम करना होगा.