गोमती नदी जिसे कभी अवध क्षेत्र के लिए वरदान माना जाता था, आज लखनऊ में लगातार गिराए जा रहे असंशोधित नालों के कारण दम तोड़ रही है और इसके संरक्षण के लिए सरकार के पास अभी तक भी कोई ठोस योजना नहीं है। लखनऊ में जहरीला होता गोमती का पानी, बंद पड़ा प्रवाह जलीय जीवन के लिए भी घातक बन गया है। गोमती एक भूजल सिंचित नदी है और पीलीभीत जिले के माधोटांडा स्थित फुलहर झील से इसका उद्गम होता है, जहां से यह 960 किमी का सफर तय करते हुए तकरीबन 15 जलग्रहण क्षेत्रों से गुजरते हुए वाराणसी से 27 किमी की दूरी पर स्थित सैदपुर में कैथी नामक स्थान पर गंगा में मिल जाती है।
27 नाले घोंट रहे हैं गोमती का दम :
अपने प्रवाह जिलों में गोमती सबसे अधिक दूषित लखनऊ में होती है, राजधानी में यह तकरीबन 58 किलोमीटर के प्रवाह में बक्शी का तालाब स्थित चंद्रिका देवी मंदिर से बहते हुए इंदिरा डेम तक पहुंचती है। इसमें से घैला पुल से शहीद पथ तक के 24 किमी के स्ट्रेच में नदी सबसे अधिक प्रदूषित होती है। इस स्ट्रेच पर लगभग 27 नाले नदी तक शहर भर का सीवर लेकर जाते है और असंशोधित रूप से ही नदी में गिर रहे हैं।
उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा जनवरी-दिसम्बर 2018 के अंतराल में लिए गए आंकड़ों के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि लखनऊ में गोमती के प्रदूषण के लिए नाले जिम्मेदार हैं, जिनसे असंशोधित अवजल निरंतर गोमती मैं गिराया जा रहा है. वर्ष भर के आकलन के आधार पर तैयार की गयी रिपोर्ट यह पूरी तरह साबित करती है कि किस प्रकार लखनऊ में प्रवेश से पहले और निकलने के उपरांत नदी जल की गुणवत्ता लखनऊ से काफी बेहतर है.
लखनऊ में गोमती नदी का जल इस कदर प्रदूषित हो चुका है कि ट्रीटमेंट के बाद भी यह उपयोग के लायक नहीं बचा है.
गोमती के जल में जिस स्तर का प्रदूषण पाया गया है, उससे स्पष्ट है कि नालों का अपशिष्ट एसटीपी से बिना शोधन के ही नदी में डाला जा रहा है. आंकड़ों की माने तो गोमती बैराज और पिपराघाट से प्रवाहित होने के बाद गोमती नदी में भरवारा एसटीपी से ट्रीट हुआ सीवरेज वाटर गिराया जाता है, जिससे यहां डीओ और बीओडी के स्तर में सुधार होना चाहिए. परन्तु यहां स्थिति इसके ठीक विपरीत है. इसके चलते अब विशेषज्ञों द्वारा भरवारा एसटीपी की क्रियाप्रणाली पर प्रश्नचिन्ह उठ रहे हैं, क्योंकि टोटल कॉलिफोर्म का बढ़ता लेवल नदी में असंशोधित सीवरेज की ओर इशारा कर रहा है. साथ ही हैदर, कुकरैल और घसियारी मंडी नाला भी गोमती में प्रदूषण का स्तर निरंतर बढ़ा रहा है.
लखनऊ से प्रमुख गोमती संरक्षणकर्ता और बीबीएयू के पर्यावरण विभाग के प्रो. डॉ. वेंकटेश दत्ता के अनुसार,
“लखनऊ के अंतर्गत बीकेटी से इंदिरानहर तक तकरीबन 38 नाले नदी में गिरते हैं. जहां रिवरफ्रंट के नाम पर लगभग 2.5 किमी के स्ट्रेच में सुधार किया गया था, वहीं 27 नालों का सीवर गिर रहा है. नदी को स्वच्छ बनाने के नाम पर भरवारा एसटीपी के जैसे अनगिनत प्रयोग किये गए हैं, जो लगातार असफल ही हुए हैं. आप देखें, तो पाएंगे कि अधिकारियों ने बहुत से स्थानों पर नदी को तालाब बना दिया है, कुड़ियाघाट का अस्थायी बांध अभी तक नहीं हटाया गया है. बैराज के गेट भी तभी खोले जाते हैं, जब नदी में प्रदूषण अधिकतम हो जाए. गऊ घाट जहां से शहर में पेयजल आपूर्ति की जाती हैं, उससे पहले ही नदी में तीन नाले गिर रहे हैं और गोमती बैराज से पहले घुलनशील ऑक्सीजन का स्तर काफी हद तक कम है. गोमती बैराज से पहले दौलतगंज एसटीपी भी यहां बनाया गया, किन्तु इसकी क्षमता बढ़ाकर संचालन का काम अभी तक नहीं हुआ है.”
झूलेलाल पार्क के पास गोमती का काला गहरा रंग खुद ही इसके सड़ने की कहानी कहता है और नदी के आगे बढ़ने पर पानी की गुणवत्ता केवल बदतर होती जाती है। बायोडिग्रेडेबल मानवीय कचरे के अतिरिक्त, अनुमानित 10 मीट्रिक टन ठोस अपशिष्ट, निर्माण सामग्री, घरेलू कचरा और प्लास्टिक के रूप में कचरा गोमती में डाला जा रहा है, जो नदी को चोक कर रहा है।
नदी के फ्लड प्लेन्स का अधिग्रहण :
पिछले पांच दशकों में नदी के बाढ़कृत मैदानों पर तेजी से कब्जा किया गया है। वर्ष 1970 के बाद से जब बाढ़ से बचाव के लिए तटबंधों का निर्माण किया गया, तभी से नदी के किनारों पर अतिक्रमण का दौर शुरू हो गया। आज देखें तो गोमती नगर का एक बड़ा हिस्सा गोमती की जमीन पर ही बसा हुआ है। इन अतिक्रमणों ने नदी के प्रवाह को कुछ क्षेत्रों में 100 मीटर तक कम कर दिया है।
पर्यावरणविद् डॉ सुधीर सिंह कहते हैं कि,
"बाढ़ के मैदानों पर अतिक्रमण न केवल इको-सिस्टम को बाधित करता है, बल्कि नदी के कायाकल्प की प्राकृतिक प्रक्रिया को भी बाधित करता है। गोमती के मामले में, जो कि भूमिगत जल द्वारा सिंचित नदी है, यह नदी के प्राकृतिक पुनर्भरण को रोक देता है। नदियाँ जीवित प्राणी हैं, जिन्हें पोषण के लिए कुछ स्थान की आवश्यकता होती है और हमें यह समझना चाहिए।"
बीबीएयू के स्कूल ऑफ एनवायर्नमेंटल साइंसेज के एसोसिएट प्रोफेसर वेंकटेश दत्ता का कहना है कि,
"जनसंख्या वृद्धि और संरक्षण दिशानिर्देशों के खराब क्रियान्वयन के साथ, गोमती के बाढ़ मैदानों का अधिकांश हिस्से का अतिक्रमण कर लिया गया है। इसने नदी के प्राकृतिक इको-सिस्टम को प्रभावित किया है और इसके प्रदूषण को बढ़ाने में योगदान दिया है।"
योजनाएं केवल कागजों पर :
गोमती के संरक्षण के लिए बनाई गई योजनाएं जमीनी स्तर पर ना होकर केवल कागजी हैं, नदी के कायाकल्प की खबरें तो दिखती हैं लेकिन धरातल पर कुछ होता नहीं दिखता है। उत्तर प्रदेश के सीएम योगी आदित्यनाथ ने झूलेलाल पार्क के पास स्थित नदी तट पर स्वयं सफाई करते हुए "क्लीन गोमती मिशन" की शुरुआत की थी और बहुत से अन्य कार्यकर्ताओं ने भी नदी के अलग अलग किनारों से कुछ कूड़ा-कचरा हटाया लेकिन यह सिर्फ एक राजनीतिक फोटो सेशन था क्योंकि इसके बाद गोमती के वास्तविक सुधार के लिए सीएम द्वारा किसी भी प्रकार के फंड या योजना का जिक्र नहीं किया गया।
यदि नदी के उद्धार की योजनाएं बनती भी हैं तो वह भी या तो कागजी होती हैं या दिखावे के लिए। वेंकटेश दत्ता बताते हैं कि,
"पिछले 10 वर्षों में, जीएपी और नदी तट विकास परियोजना के तहत गोमती पर 2,000 करोड़ रुपये से अधिक खर्च किए गए हैं। लेकिन दोषपूर्ण नियोजन, नदी प्रणालियों के बारे में ज्ञान की कमी और धन के दुरुपयोग के कारण नदी के पानी की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं हुआ है।"