सदानीरा रही गोमती हजारों वर्षों से अनेकों संस्कृतियों को सहेज रही है, कईं सभ्यताओं को पनपने में अपनी भूमिका प्रदान कर चुकी है, अनगिनत पौराणिक मान्यताओं ने इसके पवित्र तटों पर विश्राम ग्रहण किया है तथा बेहिसाब जलचर, दुर्लभ वनस्पतियां व वन्य जीवन गोमती पर निर्भर हैं. गोमती अपने आप में अनूठी नदी है, जो बरसाती होने के बावजूद भी अपने आप को भूजल द्वारा रिचार्ज करने की क्षमता में माहिर रही है. स्वतंत्रता पूर्व भारतीय इतिहास पर नजर घुमाये तो पाएंगे कि किस प्रकार मानसून से जल ग्रहण करने वाली गोमती वर्ष भर अपने आस पास के जन जीवन का पोषण निरंतर करती रही है. करोड़ों लोगों की जीवनचर्या को गोमती ने प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से लाभांवित किया है.
गोमती के किनारे बसा अवध प्रदेश यानी नवाबों का शहर लखनऊ, जो समस्त विश्व में अपनी तहजीब, तकल्लुफ और नजाकत से भरी अदायगी के लिए मशहूर है, आज आधुनिकता की दौड़ में बहुत आगे निकल चुका है. बीसवीं सदी की शुरुआत में जो लखनऊ 50 वर्ग किमी के क्षेत्र तक सीमित था, वर्तमान में 250 किमी के वर्ग क्षेत्र में अपने पाँव पसार कर बेतरतीब सा लगने लगा है. लगातार बढती जनसंख्या, अव्यवस्थित औद्योगिकीकरण की अंधी दौड़, निज स्वार्थ की बेशुमार नुमाइशें तथा घोटालों की राजनीति ने अदबों- हया के इस शहर को इस कदर बदल डाला कि यह अपनी उत्पत्ति की मुख्य धारा यानि गोमती नदी को ही अनदेखा कर बैठा. गोमती, जो पीलीभीत से निकल 240 किमी का सफर तय करने के पश्चात लखनऊ के एक बड़े हिस्से का पालन पोषण करती है, आज उसी लखनऊ में सर्वाधिक प्रदूषित हो चुकी है. जैसे जैसे जनसंख्या बढती गई, वैसे ही गोमती की समस्याएं भी सर उठती गई. खादर जोन का गोमती क्षेत्र विश्व के उपजाऊ मैदानों में से एक माना जाता है. इसका प्रमुख कारण गोमती द्वारा बाढ़ के समय बहा कर लाई गयी गदीली मिट्टी है, जो खनिज उर्वरकों से भरी होती है और गोमती के भूजल से पोषण प्राप्त करके यह उर्वरक मृदा लहलहाती, स्वस्थ फसल प्रदान कराती है. केवल लखनऊ ही नहीं बल्कि अपने बहाव क्षेत्र में आने वाले लगभग सभी 15 जिलों में भी गोमती अपने ड्रेनेजों, चैनलों तथा भूमिगत जल रिसाव से ज़मीनी जल स्तर एवं भूजल स्तर का संतुलन बनाए रखती है. हर प्रकार की परिस्थिति में भी गोमती खुद को ढालना बखूबी जानती है, अत्याधिक बरसात के समय यह अतिरिक्त जल को खुद में ही समाहित कर लेती है जिससे निचले इलाके डूबने से बच जाए.
बीबीएयु के पर्यावरण विज्ञान विभाग के एसोसिएट प्रो. डॉ वेंकटेश दत्त के अनुसार, गोमती नदी के बाढ़कृत मैदान भूजल रिचार्ज की एक सक्रिय जोन का निर्माण करते हैं. यही समय है जब हमें सम्पूर्ण बाढ़ मैदानों को खाली छोड़ देना होगा, जिससे सांस्कृतिक विरासत के स्थल भी सुरक्षित रह सकें.
परन्तु यह सब शायद अतीत की बातें थी, क्योंकि वर्तमान में अंधाधुंध शहरीकरण, विकास के नाम पर विलास की अधिकता और व्यवसायीकरण की दौड़ ने गोमती से उसके खादर इलाकों को छीन लिया. गोमती भूमि अधिग्रहण कुछ इस प्रकार बढ़ा कि केवल गोमती ही नहीं अपितु लोगों के स्वयं के लिए भी समस्याओं की फेहरिस्त खड़ी कर दी. गोमती नगर, त्रिवेणी नगर आदि शहर गोमती की उपजाऊ जमीन पर बने इसी प्रकार के बेहिसाब अतिक्रमण के नमूने मात्र हैं. इसके साथ ही निर्माण कार्यों में भूजल का अति उपयोग करके गोमती की भूजल रिचार्ज क्षमता का दोहन भी किया गया. नदी के बेहद नाजुक इको सिस्टम के साथ इतने बड़े स्तर पर खिलवाड़ किसी भी प्रकार से उचित नहीं ठहराया जा सकता, परन्तु विकास का नाम देकर वोट बैंक बढ़ाने के लिए नदी किनारों को कंक्रीट का ढांचा बनाने में सरकारी दांवपेंचों का बखूबी इस्तेमाल किया गया. आईआईटी रुड़की की एक रिपोर्ट जो सन 2013 में लखनऊ विकास प्राधिकरण के लिए विशेष रूप से तैयार की गई थी, उसके अनुसार गाद के अनवरत भराव के कारण नदी का तल 1.5 मीटर उंचा हो गया है. जलागम क्षेत्र में अत्यधिक निर्माण व मानवीय अतिक्रमण भी इसके बहाव को बाधित करने का एक प्रमुख कारण माना गया है जिसके कारण गोमती के गाद निष्पादन की क्षमता भी कम हो गयी है.
कहा जाता है ना कि मनुष्य की महत्त्वकांक्षाओं की कोई सीमा नहीं होती और इन स्वार्थी इच्छाओं का सर्वाधिक खामियाजा भुगतती है प्रकृति, गोमती नदी के साथ भी यही घटित हुआ. उसके किनारों को विकास के नाम पर केवल पाटा ही नहीं गया अपितु नगर पालिका एवं निर्माण कार्यों द्वारा निकले जहरीले कचरे तथा अवांछनीय तत्त्वों के ढेर से भर दिया गया. इसका परिणाम यह हुआ कि नदी का जल दिन पर दिन अति दूषित होता चला गया तथा नदी के आस पास का वातावरण सांस लेने योग्य भी नहीं रहा. नालों द्वारा असंशोधित मैला नदी में गिराया जाना गोमती के जख्मों को कुरेदने जैसा रहा, इससे नदी जल में भारी धातुओं, जहरीले तत्त्वों आदि की संख्या इतनी अधिक बढ़ गयी कि लोगों, वनस्पतियों, जीव जंतुओं विशेषत: जलचरों की जान पर बन आई. एक शोध के अनुसार नदी जल में ऑक्सीजन की मात्रा घटने से गोमती में लगातार मछलियां मर रही है. आस पास के लोगों में कैंसर, मलेरिया, हैज़ा जैसी खतरनाक बीमारियां फैल रही हैं.
वर्ष 1960 में लखनऊ में आई बाढ़ के मद्देनजर गोमती के तटों को बांधना आरम्भ कर दिया गया, उंचे तटबंध तथा बांधों का निर्माण किया जाने लगा. 250 से 450 मीटर तक की दीवारें गोमती के किनारों पर कड़ी कर दी गयी जिससे बाढ़ के समय निचले इलाके न डूबें. परन्तु स्थिति सुधरने की अपेक्षा और बिगडती चली गयी, नदी के प्राकृतिक स्वरुप को इससे बेहद नुकसान पहुंचा, इसके कुदरती ड्रेनेज सिस्टम पूरी तरह तबाह हो गये और बाढ़ का स्वरुप कम होने के स्थान पर अत्यधिक विकराल बन कर उभरा. मानसून के समय गोमती 10-12 मीटर उपर उठ बहने लगती है, जिससे बाढ़कृत मैदान डूबने लगे. गोमती के बहाव को बांध दिए जाने के बाद भी 2008 में लखनऊ बाढ़ की समस्या से दो चार हुआ, जो पहले की तुलना में अधिक स्तर पर थी. गोमती को कंक्रीट की दीवारों में कैद करने के परिणामस्वरुप मनुष्य स्वयं ही विनाश के कगार पर आकर खड़ा हो गया. जो नदी अपनी जीवनदायिनी क्षमताओं से सदैव मनुष्यों के लिए हितकारी रही है, विविध जड़ी बूटियों, खनिज तत्त्वों, हरियाली तथा अनाज उत्पादन की प्रदत्त बनकर माता स्वरुप में लालन पालन करती आई है, आज उसी नदी को विकास और विनाश, मानव और प्रकृति के द्वन्द ने लाचार सा बना दिया है. गोमती नदी तंत्र को समझकर यदि अभी भी गोमती की व्यथा को नहीं समझा गया तो वह दिन दूर नहीं जब गोमती के स्थान पर केवल नाले बहते नजर आयेंगे और हम चाह कर भी कुछ नहीं कर पाएंगे.
वर्तमान में रिवरफ्रंट जैसी अत्याधुनिक परियोजना से गोमती के सौंदर्यीकरण के नाम पर नदी की प्राकृतिक संरचना को बदतर किया गया है. विश्व भर में धीरे धीरे नदी किनारों को रिवरफ्रंट जैसी योजना का जामा पहनाया गया, परन्तु भारतीय सन्दर्भ में नदियों को इतनी विशालकाय परियोजनाओं के हवाले तुरत फुरत कर देना समझदारी नहीं मुर्खता का प्रतीक है. वैसे भी भारतीय नदय संस्कृति स्वयं में ही मनोहर है, यदि अनावश्यक हस्तक्षेप से उसे परे रखा जाए. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के ड्रीम प्रोजेक्ट "गोमती रिवरफ्रंट" ने गोमती को केवल बाहरी सौन्दर्यीकरण से लबरेज किया है, जबकि नदी की पारिस्थितिकी एवं जल प्रबन्धन की समग्र योजना को हाशिये पर धकेल दिया गया. इसमें नदी के स्वास्थ्य की चिन्ता से ज्यादा रियल-एस्टेट और व्यावसायिक गतिविधियों पर ध्यान दिया गया. गोमती के जलागम क्षेत्र में दोनों तरफ कंक्रीट के तटबन्ध खड़े करना और सौन्दर्य का प्रतिरूप देकर वास्तव विकास को भूल जाना कुछ ऐसा ही है, जैसे कुदरती सुन्दरता को रिजेक्ट कर प्लास्टिक सर्जरी वाली कृत्रिम सुन्दरता को बढ़ावा देना. 3000 करोड़ रूपये खर्च कर देने पर भी गोमती का स्वास्थ्य नहीं सुधर पाना वाकई गंभीर चिंतन का विषय है. रिवरफ्रंट की कपोल कल्पित सच्चाई तो आज जग जाहिर है ही, परन्तु गोमती का वास्तविक विकास किस प्रकार किया जाना चाहिए, उससे जुड़े तथ्यों पर ध्यान देना आज सबसे अधिक जरूरी है. किसी भी नदी की परिस्थितिकी में गहन हस्तक्षेप एक चिंतनीय विषय है, सिर्फ दीर्घकालिक स्थायित्व और हितों के लिहाज से ही नहीं, अपितु आर्थिक, सांस्कृतिक, जैव विविधता आदि की हानि भी राजकोष को उठानी पड़ती है. गोमती गांगेय क्षेत्र की एक प्रमुख नदी है और इस का प्रभाव तो लाखों-करोड़ों जिंदगियों से जुड़ा है, इसलिए आवश्यकता है कि सही मायनों में गोमती की तस्वीर बदले. गोमती की कथा कहीं वास्तव में एक दुखद व्यथा ही ना बनकर रह जाए.