11 जून, 2018
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
गोमती केवल अपनी गंगा-जमुनी तहजीब के कारण लखनऊ में ही नहीं अपितु विभिन्न प्रवाह क्षेत्रों सीतापुर, हरदोई, पीलीभीत, शाहजहांपुर, सुल्तानपुर, जौनपुर आदि के लिए भी सांस्कृतिक एवं एतिहासिक रूप से बेहद महत्त्वपूर्ण है. जौनपुर में 1568 में गोमती पर मुनीम खान द्वारा निर्मित शाही पुल एवं गोमती के बाएँ किनारे पर स्थित शाही किला कथित मुग़ल सम्राट फिरोजशाह द्वारा बनाया गया नायाब नमूना है. हिन्दू- मुस्लिम सद्भावना का जो अनूठा स्वरुप उक्त काल में विद्यमान रहा, उसकी गंध आज भी इन स्मारकों के रूप में गोमती के चौतरफा बिखरी हुई है. गोमती के पास बैकुंठ धाम में शीश महल स्थित आसिफी कोठी में एक प्राचीन गुसलखाने के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां मरहूम नवाबों की लाशों को दफनाने से पूर्व स्नान कराया जाता था. वर्तमान में गोमती के किनारों पर कभी गुलज़ार रही नवाब आसिफ-उद-दौला के समय की बहुत सी इमारतें खंडरों में परिवर्तित भले ही हो गयी हो, परन्तु आज भी एतिहासिकता की एक अनूठी सी झलक गोमती के किनारों पर महसूस होती है.
गोमती के मनकामेश्वर घाट पर हाल ही में एक बेहतरीन मजहबी झांकी देखने को मिली, जब गोमती आरती का गढ़ रहे प्राचीन एवं प्रसिद्ध शिव मन्दिर द्वारा टीले वाली मस्जिद के मुख्य इमामों को इफ्तारी के लिए बुलाया गया. वर्ष 2018 के रोजे शायद ही गोमती का यह पवित्र घाट भुला पाए, जब धार्मिक सद्भावना से परिपूर्ण वातावरण में हिन्दू -मुस्लिम एकत्व के अद्भुत दर्शन हुए. प्राचीन शिव मंदिर के पुजारियों द्वारा रोजेदारों के रोज़े खुलवाया जाना अपने आप में एक अनूठा सांस्कृतिक मिलन था. आपसी शांति, भाईचारे तथा एकता का सन्देश देते हुए प्राचीन शिव मन्दिर द्वारा एक मिसाल कायम की गई.
श्री महाकामेश्वर मन्दिर के मुख्य पुजारी महंत देव्यागिरी ने रोज़े की इफ्तारी के लिए टीले वाली मस्जिद के प्रमुख इमाम मौलाना सुफिया निजामी, नवाब जफ़र मीर अब्दुला, नवाब मसूद अब्दुल्ला आदि को न्योता दिया गया, जिन्होंने गोमती के घाट पर अज़ान के बाद रोज़े की इफ्तारी की. धार्मिक एकता के पर्याय बने गोमती के घाट वाकई अनूठे हैं, जहां वर्षों से विभिन्न धर्मों का अनोखा मिलन देखने को मिलता रहा है. क्योंकि नदियाँ फर्क नहीं केवल प्रवाह जानती हैं, सदियों से मनों में मौजूद धार्मिक मलिनता को ये नदियां धीरे से स्वयं में प्रवाहित करके आगे बढ़ जाती है और पीछे कुछ छोड़ जाती हैं तो केवल संस्कृतियों की सुन्दर छाप.