क्रिस्टी मुर्रे ने वर्ष 2010 में प्रकाशित अपनी पुस्तक "इंडिया डार्क" में लखनऊ यात्रा संस्करण के अंतर्गत गोमती के किनारे किसी कार्यक्रम के दौरान गोमती की मोहक छटा से मंत्रमुग्ध होकर ही शायद लिखा होगा कि, गोमती नदी चांदी की तरह चमक रही थी.
कभी सम्मान और स्वाभिमान के साथ लहराती गोमती वर्तमान में अपनी जीवंतता के साथ संघर्ष कर रही है, जिसके फलस्वरूप न केवल गोमती अपितु उसपर निर्भर लाखों लोगों के भयावह भविष्य की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है. निम्नांकित शब्दावली एक अल्प सा सार्थक प्रयास है कि जिन नेत्रों के सम्मुख ये पंक्तियां उद्दीप्त हो, वें इनकी गहराई में छिपे गोमती के मर्म को समझ सकें. आप और हम भले ही तकनीकी स्तर पर गोमती की पीड़ा को कम नहीं कर सकते, किन्तु अपने दूरगामी प्रयासों की अथक श्रृंखला से जन जागरूकता की अलख जगाकर गोमती के दर्द को साझा तो अवश्य ही कर सकते है:-
सुना है, यहां गोमती बहा करती थी..
उतर पीलीभीत से, मिलकर कईं धाराओं से,
अबाध सी घुमा करती थी.
कलकल अठखेलियां, इठलाती हिलोरियां लेती,
जाकर गंगा की गोद में मिला करती थी.
सुना है, यहां गोमती बहा करती थी.
बरसाती होकर भी सदानीरा सी रहती,
अनेकों विरासतों को गोद में थामे गोमती,
संस्कृतियों में भर दुलार, सभ्यताओं को देती संवार.
लखनवी शायरों की नज्मों में खुशनुमा सी,
गुलज़ार रहा करती थी.
सुना है, यहां गोमती बहा करती थी.
फिर लोग बढ़ें, जरूरतें भी बढ़ गई,
गोमती की ज़मीन नगरों में बदल गई.
बेहिसाब मैला गोमती में बहाया जाने लगा,
तटों को पाटने का फरमान भी आने लगा.
बेचारी सी, लाचार सी वो गोमती,
बस चुपचाप हर जुल्म सहा करती थी.
सुना है, यहां गोमती बहा करती थी.
धीरे धीरे मंद पड़ रही थी गोमती की सांसें,
सरकार थी, कि बस योजनायें ही हांकें.
जनता जनार्दन भी घरों का कचरा गोमती में भरते रहे,
किनारों से गुजरते, तो हाथ नाक पर रखते रहे.
टूटी सी आस से गोमती अब हर राही को तका करती थी,
सुना है, यहां गोमती बहा करती थी.
कुछ मुट्ठी भर लोग चाहते थे गोमती को बचाना,
एक पवित्र माँ के लिए अपना नैतिक फर्ज निभाना.
पर उन कुछ बचाने वालों पर बिगाड़ने वाले हाथ पड़ गये भारी,
और अंततः गोमती अपनी तकदीर से हारी.
आज ये जो नाला सी है ना,
यहां कभी एक नदिया बड़ी प्यारी हुआ करती थी.
सुना है, यहां गोमती बहा करती थी.